केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का 74 साल की उम्र में दिल्ली के फोर्टिस अस्पताल में हुआ निधन, लंबे समय से बीमार चल रहे थे तीन अक्टूबर को हुआ था उनके दिल का आपरेशन, ट्वीट कर बेटे चिराग पासवान ने दी जानकारी…
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा कि देश ने एक दूरदर्शी नेता खो दिया है। रामविलास पासवान संसद के सबसे अधिक सक्रिय और सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले मेंबर रहे। वे दलितों की आवाज थे और उन्होंने हाशिये पर धकेल दिए गए लोगों की लड़ाई लड़ी।
1969 में पासवान ने लड़ा था पहला चुनाव
- रामविलास पासवान का जन्म पांच जुलाई 1946 को बिहार के खगड़िया जिले एक गरीब और दलित परिवार में हुआ था।
- उन्होंने बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी झांसी से एमए और पटना यूनिवर्सिटी से एलएलबी की।
- 1969 में पहली बार पासवान बिहार के राज्यसभा चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के कैंडिडेट के तौर पर चुनाव जीते।
- 1977 में छठी लोकसभा में पासवान जनता पार्टी के टिकट पर सांसद बने।
- 1982 में हुए लोकसभा चुनाव में पासवान दूसरी बार जीते।
- 1983 में उन्होंने दलित सेना का गठन किया तथा 1989 में नौवीं लोकसभा में तीसरी बार चुने गए।
- 1996 में दसवीं लोकसभा में वे निर्वाचित हुए।
- 2000 में पासवान ने जनता दल यूनाइटेड से अलग होकर लोक जन शक्ति पार्टी का गठन किया।
- इसके बाद वह यूपीए सरकार से जुड़ गए और रसायन एवं खाद्य मंत्री और इस्पात मंत्री बने।
- पासवान ने 2004 में लोकसभा चुनाव जीता, लेकिन 2009 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
- बारहवीं, तेरहवीं और चौदहवीं लोकसभा में भी चुनाव जीते।
- अगस्त 2010 में बिहार राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और कार्मिक तथा पेंशन मामले और ग्रामीण विकास समिति के सदस्य बनाए गए थे।
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वो तीसरे मोर्चे की सरकार में भी मंत्री रहे, कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार में भी और बीजेपी की अगुआई वाली एनडीए सरकार में भी. वो देश के इकलौते राजनेता रहे, जिन्होंने छह प्रधानमंत्रियों की सरकारों में मंत्रिपद संभाला.
विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर, एचडी देवगौड़ा, आईके गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सरकार में अपनी जगह बना सकने के उनके कौशल पर ही कटाक्ष करते हुए एक समय में उनके साथी और बाद में राजनीतिक विरोधी बन गए लालू प्रसाद यादव ने उन्हें ‘मौसम वैज्ञानिक’ कहा था.
कहा जाता है, अपने सारे राजनीतिक जीवन में पासवान केवल एक बार हवा का रुख़ भांपने में चूक गए, जब 2009 में उन्होंने कांग्रेस का हाथ झटक लालू यादव का हाथ थामा और उसके बाद अपनी उसी हाजीपुर की सीट से हार गए जहाँ से वो रिकॉर्ड मतों से जीतते रहे थे.
लेकिन उन्होंने अपनी उस भूल की भी थोड़ी बहुत भरपाई कर ली, जब अगले ही साल लालू यादव की पार्टी आरजेडी और कांग्रेस की मदद से उन्होंने राज्य सभा में जगह बना ली.
लेकिन राजनीतिक बाज़ीगरी में माहिर समझे जाने वाले रामविलास पासवान शुरुआत में केवल राजनेता ही बनने वाले थे, ऐसा नहीं था.
चुने गए डीएसपी, बन गए राजनेता
बिहार के खगड़िया ज़िले में एक दलित परिवार में जन्मे राम विलास पासवान पढ़ाई में अच्छे थे. उन्होंने बिहार की प्रशासनिक सेवा परीक्षा पास की और वे पुलिस उपाधीक्षक यानी डीएसपी के पद के लिए चुने गए.
लेकिन उस दौर में बिहार में काफ़ी राजनीतिक हलचल थी. और इसी दौरान राम विलास पासवान की मुलाक़ात बेगूसराय ज़िले के एक समाजवादी नेता से हुई जिन्होंने पासवान की प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया.
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पासवान बाद में जेपी आंदोलन में भी शामिल हुए और 1975 में लगी इमरजेंसी के बाद लगभग दो साल जेल में भी रहे.
लेकिन शुरुआत में उनकी गिनती बिहार के बड़े युवा नेताओं में नहीं होती थी.
छात्र आंदोलन और जेपी आंदोलन के समय लालू यादव, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, शिवानंद तिवारी, वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे नेताओं का नाम ज़रूर सुना जाता था, लेकिन पासवान का नाम लोगों ने पहली बार 1977 में सुना.
“पासवान जी का नाम तब वैसा नहीं सुना जाता था, क्योंकि उनका नाम 74 की जो लीडरशिप थी उसमें नहीं था, फ़ैसला लेने वालों में वो शामिल नहीं थे. टिकट मिलने में उनको सुविधा इसलिए हो गई होगी क्योंकि वे दलित थे और एक बार विधायक भी रह चुके थे. रामविलास जी के बारे में ध्यान गया 77 के चुनाव में, जब लोगों में ये जानने की दिलचस्पी हुई कि ये रिकॉर्ड किसने बनाया.”
इसके बाद रामविलास पासवान ने संसद के मंच का अच्छा इस्तेमाल किया.
, “सबसे ज़्यादा सवाल पूछने वाले नेताओं में उनकी गिनती होती थी, वो ख़ूब पढ़ते-लिखते थे, हर मुद्दे पर सवाल पूछते थे जिससे उनकी छवि तेज़ी से बदली और फिर जो नए नौजवानों की लीडरशिप उभरी, उसमें वो शामिल रहे.”
1969 में पासवान ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर अलौली सुरक्षित विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और यहाँ से उनके राजनीतिक जीवन की दिशा निर्धारित हो गई.
बिहार से निकला बड़ा दलित नेता
1977 के बाद 1980 के चुनाव में भी आराम से जीतकर पासवान ने संसद और केंद्रीय राजनीति में अपनी उपस्थिति बनाए रखी, लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में वो चुनाव हार गए.
उसी समय देश में दलित उत्थान की राजनीति ने ज़ोर पकड़ा और पासवान ने हरिद्वार, मुरादाबाद जैसी सीटों पर हुए उपचुनाव में जाकर अपनी दलित नेता की छवि मज़बूत करने की कोशिश की और बिहार के बाहर भी राजनीति की राह बनाई और दिल्ली से जुड़े रहे.
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“हालाँकि वो कांशीराम और मायावती के स्तर के नेता नहीं बन पाए, लेकिन देश में दलित नेताओं की जब भी गिनती होगी तो उनका भी नाम उसमें आएगा. और इसका आगे उन्हें लाभ हुआ और वो अपनी बिरादरी के नेता बन गए.”
पासवान वोट का ध्रुवीकरण उनकी बहुत बड़ी ताक़त बन गई, जो अभी तक बनी हुई है क्योंकि अगर किसी भी नेता के पास 10 फ़ीसदी वोट हैं तो राजनीति में उनकी उपेक्षा नहीं हो सकती.
रामविलास पासवान ने इसी ताक़त के दम पर वर्ष 2000 में आकर अपनी अलग राह पकड़ी और जनता दल (यूनाइटेड) से टूटकर अपनी अलग पार्टी बनाई, जिसका नाम रखा लोक जनशक्ति पार्टी.
पटना स्थित वरिष्ठ पत्रकार अभिजीत कुमार भी बताते हैं कि रामविलास पासवान अपनी जाति के बड़े नेता बनकर उभरे और उन्हें इसका लाभ हुआ.
अभिजीत कुमार कहते हैं, “बिहार में जितनी भी दलित जातियाँ हैं, उनमें पासवान जाति में आक्रामकता का गुण रहा है, अगर किसी एक क्षेत्र में कई दलित जातियाँ हैं और उनमें पासवान भी हैं तो वहाँ वर्चस्व उनका रहता है, वो काफ़ी मुखर रहते हैं. इसका फ़ायदा उनको मिला और उनकी पार्टी का फैलाव हुआ.”
लेकिन रामविलास पासवान ने दलितों के लिए काम क्या किया?
अभिजीत कुमार कहते हैं कि रामविलास पासवान ने बीएसपी या आंबेडकर की तरह से दलितों को लेकर कोई आंदोलन नहीं किया, लेकिन इस मायने में उनकी उपयोगिता बहुत अहम रही और वो दलितों को संविधान और क़ानून में दिए गए अधिकारों पर किसी भी तरह की आँच आने के मौक़ों पर खुलकर बोला करते थे.