Friday, March 29
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सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर पढ़िए जवाहर लाल नेहरू का 1946 में दिया गया ऐतिहासिक भाषण

आज महान स्वतंत्रता सेनानी और दो बार कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती है। आज उनके बारे में बहुत सी बातें कही जाएंगी। ऐसे में नेताजी की मृत्यु के बाद 1946 में आई उनकी पहली जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में पंडित नेहरू के भाषण को देखना प्रासंगिक होगा।यहां नेहरू ने सुभाष को इस तरह याद किया: ‘

मेरे लिए यह बहुत गौरव की बात है कि यह बैठक पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली को जोड़ने वाली जगह (दरियागंज) में हो रही है. पूरी दुनिया में पुराने और नए विचारों के बीच संघर्ष हो रहा है. मैं प्रेम सहगल को उनके इस प्रण के लिए बधाई देता हूँ कि वह अपना पूरा जीवन भारत की आज़ादी के लिए समर्पित करेंगे.

आइएनए अपने आप में किंवदंती (लीजेंड) बन गई है और ‘जय हिंद’ का नारा देश के चप्पे-चप्पे में फैल गया है. आज़ाद हिंद फ़ौज के जिन तीन अधिकारियों पर मुकदमा चलाया गया,भारत की आज़ादी के संघर्ष के प्रतीक बन गए हैं. इन तीन अधिकारियों की रिहाई काउतना ज़्यादा श्रेय वकीलों की बहुत अच्छी जिरह को नहीं जाता, जितना श्रेय जनमत के दबाव को जाता है. मेरे ख्याल से यह अच्छा संकेत है.

कुछ लोग मुझसे पूछते हैं कि अब मैं क्यों सुभाष बोस की तारीफ़ कर रहा हूं, जबकि जब वह भारत में थे तो मैंने उनका विरोध किया था. मैं इस सवाल का सीधा जवाब देना चाहता हूं. सुभाष बोस और मैं भारत की आज़ादी के संघर्ष में 25 साल तक सहकर्मी थे. वह मुझसे छोटे थे, शायद 2 साल या 4 साल या इससे भी ज्यादा. हम दोनों के रिश्ते में एक-दूसरे के प्रति ज़बर्दस्त प्यार था. मैं उन्हें अपने छोटे भाई की तरह समझता था. यह एक खुला रहस्य है कि ऐसा दौर भी आया जब राजनैतिक सवालों पर हम दोनों के बीच मतभेद थे, लेकिन मैंने कभी भी, एक क्षण के लिए भी इस बात पर संदेह नहीं किया कि वह भारत की आज़ादी की लड़ाई के बहादुर सिपाही हैं।

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मैं इस बात की उम्मीद नहीं करता कि जब हम आज़ादी हासिल कर लेंगे तो हर मुद्दे पर एक ही राय होगी. उन लोगों के बीच हमेशा अलग-अलग राय होगी जो एक स्वस्थ दौड़ में शामिल हैं. इस तरह के मतभेदों का स्वागत है. जो लोग भेड़ की तरह व्यवहार करते हैं वह कुछ भी हासिल नहीं कर सकते. इसके साथ ही हमें खुद को अनुशासनहीनता से भी बचाना है. कांग्रेस के मंच पर हम हर सवाल पर विचार-विमर्श करते हैं और अंत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करते हुए किसी फ़ैसले पर पहुंचते हैं. कुछ अंतर्राष्ट्रीय सवालों पर हमारे बीच मतभेद थे, बल्कि अब भी इन सवालों पर मेरी बुनियादी राय पहले जैसी ही हैं.

मैं आई. एन. ए. के मामले से इसलिए नहीं जुड़ा कि मेरे ऊपर जनभावना के साथ चलने का दबाव था. जब सारी तस्वीर समग्रता में मेरे सामने आ गई तो मैंने इस पर अपनी राय कायम की. मैं अभी भी यह नहीं जानता कि इस तरह के संकट के समय मैंने क्या किया होता. इसी तरफ़ से मैं दूसरों को भी माप नहीं सकता. लेकिन एक बात बहुत साफ़ है कि कोई भी आदमी अपने स्वदेशी भाइयों की बहादुरी की तारीफ़ किए बिना नहीं रह सकता.

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नेताजी ने जिस तरह से संकट का सामना किया, वह प्रशंसा के योग्य है. बल्कि अगर मैं उनकी स्थिति में होता तो मैंने भी ठीक वही किया होता जो सुभाष ने किया.
लेकिन मेरा हमेशा से विश्वास रहा और आज भी मेरा स्पष्ट विश्वास है कि आज़ादी पाने की लड़ाई में किसी दूसरे देश की मदद लेना ख़तरनाक है. मौजूदा विश्व में हर देश अपने राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखता है. ऐसे में यह उम्मीद रखना व्यर्थ है कि कोई देश सिर्फ़ हमारी मदद करने के उद्देश्य से इस संघर्ष में हमारी मदद करेगा. भारत के इतिहास में ऐसे कई मौक़े मिलते हैं, जब इस तरह की मदद भारत की एकता और निष्ठा के लिए घातक साबित हुई. हमने जिन लोगों से मदद मांगी, उन्होंने बाद में हमारे ऊपर प्रभुत्व हासिल कर लिया.

नेहरू: मिथक और सत्य / 363-64

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