लंबे समय बाद बिहार देश की राजनीति के केंद्र में है। नीतीश कुमार सोमवार से भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों को एक करने के राष्ट्रीय अभियान पर निकलेंगे। इसी महीने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का बिहार दौरा भी होने जा रहा है। क्षेत्रीय दल होते हुए भी जदयू ने जितना व्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीके से नीतीश को केंद्र की राजनीति के लिए आगे बढ़ाया है, उतना किसी दल ने नहीं किया है।
परिणाम को अगर भविष्य की रणनीति पर टाल दिया जाए तो 1974-75 के जेपी आंदोलन के बाद पहली बार बिहार इतने बड़े स्तर पर राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने का प्रयास करने जा रहा है। हालांकि 1990 में लालू प्रसाद ने लालकृष्ण आडवाणी की अयोध्या रथ यात्रा को रोक कर बिहार को चर्चा में जरूर लाया था, मगर उससे इस प्रदेश को कुछ प्राप्त नहीं हो सका था। न होना था। मंडल आयोग की सिफारिशों के विरोध और समर्थन ने भी कुछ समय तक बिहार को देश की राजनीति के केंद्र में रखा था, किंतु इस बार के हालात बता रहे हैं कि विपक्षी दलों की चुनौती के बीच भाजपा का फोकस भी बिहार पर ही ज्यादा रहेगा।
भाजपा के खिलाफ कई क्षेत्रीय दल अरसे से मोर्चा खोलने की मंशा तो रखते आ रहे हैं, किंतु सबके अलग-अलग एजेंडे हैं। क्षेत्रीय स्वार्थ और छोटे-छोटे मुद्दों पर परस्पर प्रतिस्पर्धा भी। भाजपा के बढ़ते दायरे के साथ ही कांग्रेस की ताकत राष्ट्रीय स्तर पर लगातार क्षीण होती जा रही है। राज्य स्तर के दल भी दूसरे की राह में कांटे बिछा रहे हैं। तेलंगाना में केसीआर के रास्ते में कांग्रेस परम शत्रु है तो बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को वामदलों के साथ कांग्रेस से भी बराबर की दूरी बनाकर चलने की मजबूरी है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती की वैमनस्यता सबके सामने है। पंजाब और गुजरात में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को सिर्फ भाजपा ही नहीं, कांग्रेस से भी कड़ा मुकाबला है।
महाराष्ट्र में सत्ता से बेदखल होने के बाद शिवसेना और राकांपा को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पैरोकार की जरूरत है। नीतीश कुमार के अनुभवों ने सभी क्षेत्रीय दलों के राजनीति शास्त्र को समझा है। बेचैनी और मजबूरी का अध्ययन किया और निकल पड़ा है महाअभियान पर। जदयू ने इसके लिए उचित माहौल तैयार किया। नीतीश ने सधी चाल चली है। राजद से गठबंधन की पृष्ठभूमि तैयार की। परम प्रतिस्पर्धी लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव को साथ आने के लिए राजी किया। किसी एक प्रदेश में दो बड़े क्षेत्रीय दलों की ऐसी समझौतावादी जुगलबंदी फिलहाल सिर्फ बिहार में है। अब विपक्ष को एकजुट करने के लिए एक-एक कदम सोच-समझकर उठाया जा रहा है।
आरसीपी बने तात्कालिक कारण
नीतीश कुमार में बिहार की राजनीति से निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने की छटपटाहट पहले से ही दिख रही थी, किंतु बिहार में भाजपा के साथ सरकार चलाते हुए ऐसा संभव नहीं था। नीतीश को अलग होने के लिए संपूर्ण और संतुलित कारण की तलाश थी। ऐसे में जदयू नेता एवं तत्कालीन केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह का पार्टी लाइन से अलग रास्ता भाजपा से अलगाव का कारण बना और नीतीश कुमार गठबंधन बदलकर एक बड़े अभियान के लिए राजद के साथ खड़े हो गए।
पहले भी केंद्र में रह चुका है बिहार
चार दशक पहले जेपी आंदोलन के समय भी बिहार राजनीति का प्रयोग भूमि बन चुका है। गुजरात से शुरू हुआ छात्र आंदोलन बिहार तक पहुंचा। समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इसका इतना विस्तार हुआ कि पटना से दिल्ली तक इसका व्यापक असर हुआ। बिहार आंदोलन ने बिहार को नेतृत्व की नई पीढ़ी दी। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और सुशील मोदी सरीखे नेता इसी आंदोलन की उपज हैं।